प्रतिशब्द
बाज़ार जब आदमी का
आदमीनामा तय कर रहा हो
जब धरती को स्वप्न की तरह देखने वाली आँखें
एक सही और सार्थक जनतंत्र की प्रतीक्षा में
पथरा गई हों
सभ्यता और उन्नति की आड़ में
जब मानुष को मारने की कला ही
जीवित रही हो
और विकसित हुई हो धरती पर
जब कविता भी
एक गँवार गड़ेडिया के कंठ से निकलकर
पढे-लिखे चालाक आदमी के साथ
अपने मतलब के शहर चली गई हो
और शोहरत बटोर रही हो
तब क्या बचा एक कवि के लिए ?
टटोल रहा हूँ
अपने अंदर प्रतिशब्दों को -
तमाम खालीपन के बीच
गूँथ रहा हूँ उनको एक -एक कर
फिर करुणा और क्रोध की तनी डोरी से
उन कला-पारंगतों और उनके तंत्र के विरोध में
जिसने धरती का सब सोना लूट लिया |
Thursday, October 30, 2014
Posted by Sushil Kumar
इस दीवार के सामने एक खिड़की खुलती है
तथाकथित अति सभ्य और संवेदनशील समाज में
सब ओऱ दीवारें चुन दी गई हैं
और हर दीवार के अपने दायरे बनाए गए हैं
इन दायरों -दरो -दीवारों को फाँद कर
हवा तक को बहने की इजाज़त नहीं
2.
खिड़कियाँ खोलने पर यहाँ कड़ी बन्दिशें हैं
क्योंकि अनगिनत बोली, भाषा और सुविधाओं के रंग में रंगे
उन संवेदनाओं और सभ्यताओं के कई प्रच्छन्न रूप हैं
उन संवेदनाओं और सभ्यताओं के कई प्रच्छन्न रूप हैं
कई-कई भंगिमाओं में,
नवयुग की आधुनिकता से उपजी
नव-विकसित शब्दावलियों के संज्ञा , विशेषण और क्रियाओं से बने हुए
3.
पर तुम मानों या न मानों,
इस दीवार के सामने एक खिड़की खुलती है
उनकी भाषा, सभ्यता और रंग के खिलाफ़
4.
- हाँ, और इसी खिड़की से एक कविता
प्रवेश करती है निर्बाध मुझमें
फिर दुनिया की उन सारी सभ्य दीवारों से टकराती हैं
जिसकी प्रतिश्रुति फ़िर एक नई कविता के लिए
मुझे तैयार करती है |
Saturday, October 11, 2014
Posted by Sushil Kumar
तलाश
साभार : गूगल |
आँखें टटोलतीं है
एक अप्रतिम चित्ताकर्षक चेहरा
- जो प्रसन्न-वदन हो
- जो ओस की नमी और गुलाब की ताजगी से भरी हो
- जो ओज, विश्वास और आत्मीयता से परिपूर्ण
- जो बचपन सा निष्पाप
- जो योगी सा कान्तिमय और
- जो धरती-सी करुणामयी हो
कहाँ मिलेगा पूरे ब्रह्मांड में ऐसा चेहरा -
मैं खोजता हूँ
बारंबार खोजता हूँ
देखता हूँ -
एक चेहरा - झुर्रियों से पटा हुआ
एक चेहरा - कलियों सी शोख पर तमतमाया और जर्द
एक दु:ख और रूआँसा का चेहरा है
एक चेहरे पर नकाब लगा है
एक का चेहरा अहंकार से सना है
एक का चेहरा तृषाग्नि में झुलसा है
कहीं चेहरे से प्रतिशोध और प्रतिरोध की ज्वालाएँ उठ रही हैं
तो कहीं हिंसा-प्रतिहिंसा की मुद्राएँ तमक रही हैं
इन असंख्य चेहरों के बीच
वह चेहरा कहाँ पाऊँगा
जो एक आदमी का असली चेहरा होता है ?
Friday, October 10, 2014
Posted by Sushil Kumar
पचास की वय पार कर
(चित्र : गूगल साभार ) |
पचास की वय पार कर
मैं समझ पाया कि
वक्त की राख़ मेरे चेहरे पर गिरते हुए
कब मेरी आत्मा को छु गई, अहसास नहीं हुआ
उस राख़ को समेट रहा हूँ अब दोनों हाथों से
2.
दो वाक्य के बीच जो विराम-चिन्ह है
उसमें उसका अर्थ खोजने का यत्न कर रहा हूँ
3.
मेरे पास खोने को कुछ नहीं बचा
समय उस पर भारी होगा
जो समय का सिक्का चलाना चाहते हैं
आने दो उस अनागत अ-तिथि को
उसके चेहरे पर वह राख़ मलूँगा
जिसे मैंने अपने दोनों हाथों से बटोरी है
4.
जितने दृश्य दर्पण ने रचे थे
वह सब उसके टूटने से बिखर गए
रेत पर लिखी कविताएँ
लहरें अपने साथ बीच नदी में ले गई
अब जो रचूँगा, सहेजकर रखूँगा
हृदय के कागज पर अकथ लिखूंगा
5.
यह कालक्रम नहीं
समय के दो टूकड़ों के बीच की रिक्ति है
अथवा कहो- क्रम-भंग है,
एक विभाजन-रेखा है
इसमें अनहद है अनाहत स्वर है
नि: शब्द संकेत-लिपि है
कविता का बीज गुप्त है इसमें !
Thursday, October 9, 2014
Posted by Sushil Kumar
कविता शब्दों से नहीं रची जाती
कविता शब्दों से नहीं रची जाती
आभ्यांतर के उत्ताल तरंगों को उतारता है कवि
कागज के कैनवस पर
एक शब्द-विराम के साथ /
कविता प्रतिलिपि होती है उसके समय का
जो साक्षी बनती है शब्दों के साथ उसके संघर्ष का
जिसमें लीन होकर कवि जीता है अपना सारा जीवन
बिन कुछ कहे,
और जीने को अर्थ देता है /
जब कविताएँ कान और हृदय से नहीं,
पेट और दिमाग से सुनी जाती हो
शब्द कवि के लिए प्रतीक-चिन्ह नहीं -
एक प्रश्न-चिन्ह बन कर रह जाता है
उसके जीवन का